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भारत के रहस्यमयी शिव मंदिर: प्राचीन रहस्य और आध्यात्मिक वैभव | Lordkart

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भारतीय सभ्यता की जड़ों में एक ऐसी दिव्यता समाई है जिसे शब्दों में पिरोना कठिन है। भगवान शिव संहारक भी हैं और सृजनकर्ता भी है। आज हम चलेंगे उनके पांच ऐसे मंदिरों की ओर जो सिर्फ आस्था ही नहीं रहस्य को भी चुनौती देते हैं।

भूतनाथ मंदिर

भूतनाथ मंदिर हिमाचल प्रदेश के मंडी की आध्यात्मिक विरासत के दिव्य सार को समेटे हुए हिमाचल प्रदेश के मंडी में स्थित भूतनाथ मंदिर शांत व्यास नदी के किनारे राजसी हिमालय की चोटियों के बीच स्थित है, जो आध्यात्मिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। पौराणिक कथाओं से भरपूर और दूर-दूर से आने वाले भक्तों द्वारा पूजित यह प्राचीन मंदिर मंडी की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और आध्यात्मिक आकर्षण का प्रमाण है। भूतनाथ मंदिर की जड़े प्राचीन काल से जुड़ी हैं। जो मिथक और लोकथाओं में छिपी हुई हैं। किंबवदंती है कि इस मंदिर का निर्माण राजा अजबर सेन ने 1520 के दशक में करवाया था। जो हिंदू देवताओं में विध्वंसक और परिवर्तनकर्ता भगवान शिव को समर्पित है। सदियों से मंदिर में अनेक नवीनीकरण और संवर्धन हुए हैं। फिर भी इसका सार अपरिवर्तित बना हुआ है। 

एक पवित्र अभय अरण्य जहां भक्त शांति और दिव्य आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। जैसे ही कोई मंदिर के पास पहुंचता है, इसकी वास्तुकला की भव्यता ध्यान आकर्षित करती है। जटिल नक्काशी और जीवंत रंगों से सुसज्जित मंदिर का अग्रभाग शिल्प कौशल का एक उत्कृष्ट नमूना है जो इस क्षेत्र की समृद्ध कलात्मक विरासत को दर्शाता है। ऊंचे शिखर आकाश को भेदते हैं जो सांसारिक और दिव्य के बीच संबंध का प्रतीक हैं। जो तीर्थ यात्रियों को आध्यात्मिक जागृति की यात्रा पर जाने के लिए आमंत्रित करते हैं। भूतनाथ मंदिर के गर्भ गृह में प्रवेश करते ही शांति और श्रद्धा का वातावरण छा जाता है। हवा में धूप बत्ती की खुशबू और भक्ति गीतों की मधुर धुनें घुली हुई हैं। यहां टिमटिमाते तेल के दियों और पुष्पों के बीच भक्त भगवान शिव से प्रार्थना करते हैं। स्वास्थ्य, समृद्धि और आध्यात्मिक पूर्णता के लिए आशीर्वाद मांगते हैं। यह एक ऐसा स्थान है जहां पवित्र और धर्मनिरपेक्षता का संगम होता है।

जहां सांसारिक दुनिया और दैवीय क्षेत्र के बीच की सीमाएं धुंधली होकर महत्वहीन हो जाती हैं। पूरे वर्ष भर भूतनाथ मंदिर विभिन्न सांस्कृतिक उत्सवों और धार्मिक समारोहों के लिए केंद्र बिंदु के रूप में कार्य करता है। महाशिवरात्रि विशेष रूप से विशेष महत्व रखती है। जो भगवान शिव की महिमा का जश्न मनाने वाले अनुष्ठानों और उत्सवों में भाग लेने के लिए भक्तों की भीड़ को आकर्षित करती है। मंदिर परिसर जीवंत रंगों, पारंपरिक संगीत और हर्षोल्लास के साथ जीवंत हो उठता है। जिससे सांप्रदायिक सद्भाव और आध्यात्मिक आनंद का माहौल बनता है। भूतनाथ मंदिर निसंदेह मंडी के आध्यात्मिक परिदृश्य का मुकुट रत्न है। लेकिन इसके आसपास का वातावरण देखने और अनुभव करने के लिए बहुत कुछ प्रदान करता है। व्यास नदी के किनारे आराम से टहलना, आसपास के मंदिरों और तीर्थ स्थलों की यात्रा करना या हिमालय की तलहटी के शांत वातावरण में बस आराम करना मंडी में बिताया गया हर पल। इस आकर्षक शहर के कालातीत आकर्षण का प्रमाण है।

सदियों से भूतनाथ मंदिर आशा की किरण और थकी हुई आत्मा के लिए आश्रय के रूप में कार्य करता रहा है। इसके पवित्र परिसर में अनगिनत भक्तों द्वारा की गई प्रार्थनाओं की प्रतिध्वनि गूंजती रहती है। जो पीढ़ियों और संस्कृतियों में फैली हुई है। चाहे आप ईश्वरीय आशीर्वाद पाने वाले श्रद्धालु तीर्थ यात्री हो या आध्यात्मिक ज्ञान की तलाश में उत्सुक यात्री भूतनाथ मंदिर की यात्रा निश्चित रूप से आपके दिल और आत्मा पर एक अमिट छाप छोड़ेगी। 

रत्नेश्वर मंदिर

रत्नेश्वर मंदिर भारत का वाराणसी शहर अपने धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व के लिए मशहूर है। यहां हर साल लाखों श्रद्धालु गंगा घाट के दर्शन करने के लिए पहुंचते हैं। कहने को तो वाराणसी या बनारस में कई मंदिर हैं। लेकिन रत्नेश्वर मंदिर जैसा कोई और मंदिर नहीं है। इसकी एक खासियत इसे अन्य मंदिरों से अलग बनाती है। दरअसल अन्य मंदिरों के अलावा यह मंदिर तिरछा खड़ा हुआ है। जी हां, इस प्राचीन मंदिर को देखकर इटली के पीसा टॉवर की याद आ जाती है। आपको शायद अब तक इस मंदिर के बारे में पता नहीं होगा लेकिन यह एक ऐसी इमारत है जो पीसा से भी ज्यादा झुकी हुई और लंबी है। पीसा टावर लगभग 4 डिग्री तक झुका हुआ है।

लेकिन वाराणसी में मणिकर्णिका घाट के पास स्थित रत्नेश्वर मंदिर लगभग 9° तक झुका हुआ है। कुछ रिपोर्टों के अनुसार मंदिर की ऊंचाई मीटर है जो पीसा से 20 मीटर ज्यादा है। ऐतिहासिक रत्नेश्वर मंदिर सदियों पुराना है। वाराणसी का रत्नेश्वर मंदिर महादेव को समर्पित है। इसे मात्र ऋण महादेव वाराणसी का झुका मंदिर या काशी करवात के नाम से भी जाना जाता है। रत्नेश्वर मंदिर, मणिकर्णिका घाट और सिंधिया घाट के बीच में स्थित है। यह साल के ज्यादातर समय नदी के पानी में डूबा रहता है। कई बार पानी का स्तर मंदिर के शिखर तक भी बढ़ जाता है। ऐसा कहा जाता है कि मंदिर का निर्माण 19वीं शताब्दी के मध्य में हुआ था। मंदिर को 1860 के दशक से अलग-अलग तस्वीरों में चित्रित है।

यह मंदिर क्यों झुका हुआ है?

इसके पीछे भी एक कहानी है। ऐसा कहा जाता है कि यह मंदिर राजा मानसिंह के एक सेवक ने अपनी मां रत्नाबाई के लिए बनवाया था। मंदिर बनने के बाद उस व्यक्ति ने गर्व से घोषणा की कि उसने अपनी मां का कर्ज चुका दिया है। जैसे ही यह शब्द उनकी जुबान से निकले मंदिर पीछे की तरफ झुकने लगा। यह दिखाने के लिए कि किसी भी मां का कर्ज कभी नहीं चुकाया जा सकता। इस तीर्थ का गर्भगृह वर्ष के ज्यादातर समय गंगा के जल के नीचे रहता है। अगर हम इस मंदिर की वास्तुकला के बारे में बात करें तो इसका निर्माण शास्त्रीय शैली में नगर शिखर और फार्मसान मंडप के साथ किया गया है।

वास्तुकला के बारे में मंडप सार्वजनिक स्थानों के लिए एक स्तंभित हॉल है। बहुत ही दुर्लभ संयोजन के साथ मंदिर पवित्र गंगा नदी के निचले स्तर पर बनाया गया है। दिलचस्प बात यह है कि जल स्तर मंदिर के शिखर के टॉप तक पहुंच सकता है। ऐसा लगता है कि जैसे बिल्डर को पता था कि इस मंदिर का ज्यादातर हिस्सा पानी के भीतर रहेगा। इसका निर्माण बहुत कम जगह पर किया गया है। हालांकि यह मंदिर आज भी पानी के भीतर है, लेकिन इसे आज भी संरक्षित और मूल्यवान माना जाता है। मानसून के दौरान इस मंदिर में कोई भी अनुष्ठान नहीं किया जाता। बारिश के मौसम में कोई भी पूजा या प्रार्थना की आवाज सुनाई नहीं देती। घंटियों को बजते कोई देख और सुन नहीं सकता।

अगर आप इस मंदिर की पुरानी तस्वीरें देखें तो पाएंगे कि मंदिर पहले सीधे ही खड़ा था। हालांकि वर्तमान समय में यह तिरछा दिखता है। बताया जाता है कि एक बार घाट ढह गया था और झुक भी गया था। बस तब से ही यह तिरछा हो गया है। आध्यात्मिकता की तरफ झुकाव रखने वाले लोगों को छोड़कर बड़ी संख्या में यात्रियों को अभी तक इस मंदिर के बारे में नहीं पता है। पीसा की झुकी मीनार से ज्यादा झुके होने के बाद भी यह मंदिर गुमनामी में खो गया है। लेकिन अब जब भी आप वाराणसी की यात्रा पर जाएं तो रत्नेश्वर मंदिर की यात्रा करना ना भूलें। 

 तुंगनाथ मंदिर

तुंगनाथ मंदिर उत्तराखंड को देवभूमि कहा जाता है। इस जगह पर कई मंदिर हैं। वहीं रुद्रप्रयाग में दुनिया का सबसे ऊंचा शिव मंदिर भी है। यह तुंगनाथ मंदिर है। उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग में तुंगनाथ एक ऐसा मंदिर है जो तुंगनाथ के राजसी पहाड़ों के बीच बसा है। यह दुनिया के सबसे ऊंचे शिव मंदिरों में से एक है। मंदिर 3680 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यह पंच केदारों में से एक है और माना जाता है कि यह लगभग 1000 साल पुराना है। 

मंदिर के निर्माण के बारे में कहा जाता है कि इसे पांडवों ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए स्थापित किया था। इसके अलावा यह भी मान्यता है कि माता पार्वती ने भी भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए यहीं पर तपस्या की थी। कहते हैं कि यहां बैल के रूप में भगवान शिव के हाथ दिखाई दिए थे। जिसके बाद पांडवों ने तुंगनाथ मंदिर का निर्माण करवाया था। मंदिर का नाम तुंग है। जिसका मतलब हाथ और नाथ भगवान शिव के प्रतीक के रूप में लिया गया है। कहा यह भी जाता है कि रावण ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए इसी जगह पर तपस्या की थी। इसके अलावा भगवान राम ने रावण के वध के बाद खुद को हत्या के श्राप से मुक्त करने के लिए उन्होंने इस जगह पर शिव जी की तपस्या की थी।

यह मंदिर केवल कुछ महीनों के लिए ही खुलता है। यह आमतौर पर गर्मियों के महीनों के दौरान खुला होता है। जब तीर्थ यात्री मंदिर जाते हैं। वहीं अक्टूबर के अंत तक मंदिर के दरवाजे बंद हो जाते हैं। तुंगनाथ में कोई रेलवे स्टेशन नहीं है। हालांकि इसके सबसे पास रेलवे स्टेशन ऋषिकेश में है जो तुंगनाथ से लगभग 210 कि.मी. दूर है। वहीं आप ऋषिकेश से गोपेश्वर होकर चोपता पहुंचे। फिर लोकल साधन लेकर आप मंदिर पहुंच सकते हैं। हिमालय में स्थित शिव को समर्पित पांच मंदिरों के समूह को पंचकेदार कहा गया है।

मान्यता है कि इनका निर्माण पांडव व उनके वंशजों ने करवाया था। पंच केदार में महादेव के विभिन्न विग्रहों की पूजा की जाती है। हर केदार की अपनी विशेषता है। पहले केदार बाबा केदारनाथ हैं। जहां भगवान शिव के पृष्ठ भाग यानी पीठ की पूजा की जाती है। यहां भगवान शिव ने पांडवों को बैल के रूप में दर्शन दिए थे। दूसरा केदार है मध्यमहेश्वर। यहां भोले बाबा के मध्य भाग यानी नाभि की पूजा की जाती है। कहते हैं यहां का पानी इतना पवित्र है कि इसे पीने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। तीसरा केदार है तुंगनाथ। यहां महादेव की भुजाओं की पूजा की जाती है। इसीलिए तुंगनाथ को भगवान महादेव का सबसे बलशाली रूप माना जाता है। तुंगनाथ दुनिया का सबसे ऊंचा शिव मंदिर है।

केदार रुद्रनाथ कल्पेश्वर मंदिर

रुद्रनाथ मंदिर बाकी सभी शिव मंदिरों से अलग हैं। यहां भगवान शिव की जटाओं की पूजा की जाती है। कल्पेश्वर एक ऐसा केदार है जो अपने भक्तों के लिए पूरे साल खुला रहता है। पांच केदार के सभी पांच मंदिरों के दर्शन करने के लिए आपको एक गोलाकार रूट को फॉलो करना होता है। अधिकांश भाग के लिए आपको पैदल चलना पड़ता है। पंच केदार यात्रा केदारनाथ मंदिर से शुरू होती है। रुद्रेश्वर मंदिर हजार खंभों वाले इस मंदिर में स्थापित हैं भगवान शिव के साथ श्री हरि और सूर्य देवता। रुद्रेश्वर मंदिर तेलंगाना के वारंगल में है। भारत मंदिरों की भूमि है। यहां अजीबोगरीब और अनोखे मंदिर बने हुए हैं। इसी में से एक है हजार खंभों वाला रुद्रेश्वर स्वामी मंदिर। जहां महादेव के साथ श्री हरिण विष्णु और सूर्य देवता भी विराजमान हैं।

इसे हजार खंभों वाले मंदिर के नाम से जाना जाता है। रुद्रेश्वर मंदिर को काकतीय राजाओं ने बनवाया था। हैदराबाद तेलंगाना के वारंगल में पूरे 1000 स्तंभों वाला रुद्रेश्वर मंदिर स्थित है। वारंगल शहर काकतीय वंश के राजाओं की राजधानी थी। जिन्होंने यहां पर अपने आराध्य रुद्रेश्वर के मंदिर की स्थापना की थी। हजार खंभों वाले मंदिर के नाम से मशहूर है। रुद्रेश्वर एक ऐतिहासिक मंदिर है। इस मंदिर की सबसे खास बात यह है कि यहां एक साथ भगवान विष्णु, भगवान शिव और भगवान सूर्य की आराधना की जाती है। यह मंदिर बहुत प्राचीन है। इसका निर्माण काकतीय नरेश राजा रुद्रदेव ने 10163 में करवाया था। इस मंदिर के निर्माण के दौरान बेहतर नक्काशी और उन्नत तकनीक का इस्तेमाल किया गया था।

इस मंदिर का प्रभावशाली प्रवेश द्वार हजार विशाल खंभे और छतों के शिलालेख आकर्षण केंद्र हैं। हजार स्तंभों वाला मंदिर यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल है। और दक्षिण भारत के सबसे प्राचीन मंदिरों में से एक है। रुद्रेश्वर मंदिर वारंगल की हनमकोंडा पहाड़ी पर स्थित है। इस मंदिर को रुद्रेश्वर स्वामी मंदिर नाम से जाना जाता है। मंदिर परिसर में 1000 स्तंभ होने की वजह से इसे हजार स्तंभों वाला मंदिर कहा जाता है। मंदिर के मुख्य दरवाजे पर भगवान शिव के प्रिय नंदी बैल की विशाल प्रतिमा स्थापित है। जिसे एक काले पत्थर को तराश कर बनाया गया है।

वारंगल का रुद्रेश्वर इकलौता ऐसा मंदिर है जो एक तारे के आकार का बना है। इस मंदिर की खासियत यह है कि यहां एक ही छत के नीचे तीन देवताओं की मूर्तियां स्थापित हैं। जिसमें भगवान शिव भगवान विष्णु के साथ सूर्य देवता शामिल है। इसलिए इसे त्रिकुटल्यम भी कहते हैं। आमतौर पर महादेव और श्री हरि के साथ ब्रह्मा की ही पूजा होती है। लेकिन यह ऐसा इकलौता मंदिर है जहां ब्रह्मा की जगह सूर्य देवता विराजमान हैं। रुद्रेश्वर के मंदिर का शिवलिंग स्वयंभू है।

एक कथा के मुताबिक 12वीं सदी के दौरान अनाज बाजार हनामकोंडा में जाने के लिए किसान इसी जगह से गुजरते थे। एक दिन यहां पर किसी किसान की बैलगाड़ी का पहिया कीचड़ में फंस गया। जब लोगों ने उस पहिए को बाहर निकालने की कोशिश की तो उन्हें वहां पर एक शिवलिंग दिखा। बाद में लोगों ने इसी स्थान पर मंदिर का निर्माण किया। इसी कारण इस मंदिर का स्वयंभू नाम पड़ा। स्वयंभू का शाब्दिक अर्थ है अपने आप जन्मा हुआ। इस मंदिर को 14वीं शताब्दी में आक्रमणकारियों ने नष्ट कर दिया था। मंदिरों के अवशेषों को जोड़कर इसका निर्माण फिर से किया गया है। मंदिर के चारों ओर बड़े-बड़े मेहराब हैं जो काकतीय साम्राज्य की वास्तुकला की मिसाल हैं।

बिजली महादेव मंदिर हिमाचल प्रदेश

बिजली महादेव मंदिर हिमाचल प्रदेश में ऐसे कई दिव्य मंदिर विराजमान हैं जिनकी महिमा का गुणगान जितना भी किया जाए उतना कम है। आज हम बात कर रहे हैं कुल्लू घाटी के सुंदर गांव का सवरी में स्थित बिजली महादेव मंदिर की जिसके चमत्कार की चर्चा दुनिया भर में है। इस पवित्र धाम में हजारों लोग हर साल दर्शन करने के लिए पहुंचते हैं। बिजली महादेव मंदिर मनाली से लगभग 60 कि.मी. और कुल्लू से 30 कि.मी. दूर पहाड़ की चोटी पर समुद्र तलस से 2460 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। ऊंचाई पर मौजूद होने की वजह से यह मंदिर बहुत ही खूबसूरत लगता है।

जहां से कुल्लू, मणिकर्ण, पार्वती और भुंतर घाटी दिखाई देती है। इस मंदिर की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहां हर 12 साल बाद आकाशीय बिजली गिरती है। यह बिजली मंदिर के शिवलिंग पर गिरती है। जिससे शिवलिंग कई हिस्सों में टूट कर बिखर जाता है। इसके बाद मंदिर का पुजारी सभी टुकड़ों को इकट्ठा करके उन्हें मक्खन से जोड़कर दोबारा ठोस रूप देता है। हालांकि जोड़कर कुछ दिनों के बाद रहस्यमई तरीके से यह अपने पूर्व रूप में भी आ जाता है। मक्खन से बने होने के कारण इसे मक्खन महादेव भी कहा जाता है। स्थानीय लोगों के अनुसार प्राचीन काल में इस जगह पर कुलांत नाम का एक दैत्य रहता था।

एक दिन उसने एक विशाल अजगर का रूप ले लिया और व्यास नदी में कुंडली मारकर बैठ गया ताकि वह पूरी घाटी को जल में डुबोकर खत्म कर सके। इसके बाद भगवान शिव भक्तों की रक्षा के लिए आए और अपने त्रिशूल से अजगर का वध किया और लोगों की जान बचाई। माना जाता है कि रोहतांग से मंडी तक फैले पहाड़ कुलांत अजगर का ही शरीर था जो उसकी मौत के बाद पहाड़ में बदल गया। कुलांत की मौत के बाद भी जब भी स्थानीय लोगों का डर नहीं गया तो शिवजी कुलांत के माथे पर यानी पहाड़ की चोटी पर ही बस गए और बारिश के देवता इंद्र को आदेश दिया कि कुल्लू वासियों पर आने वाले सभी संकट को बिजली के रूप में उनके ऊपर गिराना और माना जाता है तभी से कुल्लू घाटी के सभी संकट भगवान शिव अपने ऊपर सहते हैं। बिजली, महादेव, मंदिर साल भर खुला रहता है। लेकिन यहां आने का सबसे अच्छा समय गर्मियों का मौसम है। इस समय मौसम सुहावना रहता है और आसपास का नजारा भी बेहद खूबसूरत दिखाई देता है।

Disclaimer: यहां मुहैया सूचना सिर्फ मान्यताओं और जानकारियों पर आधारित है. यहां यह बताना जरूरी है कि lordkart.com किसी भी तरह की मान्यता, जानकारी की पुष्टि नहीं करता है. किसी भी जानकारी या मान्यता को अमल में लाने से पहले संबंधित विशेषज्ञ से सलाह लें. 

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